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कहीं बदल न जाये लोकतन्त्र की परिभाषा !

हालात की चाल ।
हालात की चाल ।
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हमारा देश , भारत जो विश्वगुरु बनने का सपना देख रहा हैं और अपने आप को सबसे बङा , सबसे मजबूत लोकतन्त्र मानता हैं। लोकतन्त्र मतलब जहाँ जनता का , जनता के लिए , जनता द्वारा शासन होता हैं . कहने को तो यह परिभाषा लोकतन्त्र की एकदम सटीक और सार्थक अर्थ बताती हैं और अधिकांश विद्दान लोकतन्त्र की इस परिभाषा को सबसे उपयुक्त परिभाषा भी मानते हैं । अब ऐसे में हमे सोचना चाहिए कि जब हम अपने आप को सबसे बङा एंव सबसे मजबूत लोकतन्त्र मानते हैं तो हम इस परिभाषा की कसौटी पर कहाँ तक खङे उतरते हैं ? क्या ये परिभाषा वर्तमान में देश की परिस्थिति के अनुकूल हैं? हमारे नेता कहते हैं कि वे जनता के सच्चे एंव जनता के बीच से चुनकर आएं प्रतिनिधि हैं और जनता ने उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए चुना हैं इसीलिए वे जनता के कन्धे पर बन्दूक रखकर अपनी सियासी गोलियां दागते रहते हैं और कुछ कहने-पूछने पर जनता को जनता की ही दुहाई दे देते हैं । ऐसे मे जनता को भी एक बार सोचने पर मजबूर होना पङता हैं कि क्या ये वही प्रतिनिधि हैं जो चुनाव के समय जब उनसे वोट मांगने आए थे तब उनके मुख वचनों से मिश्री जैसी वाणी निकल रही थी और अब ऐसी कङवी वाणी निकलने लगी हैं कि सुनने वाला भी परेशान होकर खुद अपने कान बंद कर ले पर ये नेता अपना मुहँ बंद करने से कहाँ बाज आने वाले हैं ? इस बयानी गोलो को दागने में केवल एक पार्टी विशेष ही अपना योगदान नहीं दे रही हैं बल्कि सारी पार्टियां सच्ची श्रदा से अपने नेताओं के बयानी बाण पर चुपी साध कर अपने नेताओं को अप्रत्यक्ष सहयोग दे रही हैं । एक समय था जब हमारे नेता बोलते थे तो जनता तो जनता विपक्षी दल के नेता भी उनकी बात बङे ध्यान से सुनते थे फिर चाहे वे अटलबिहारी वाजपेयी हो या जयप्रकाश नारायण हो या इन्दिरा गांधी जी ही क्यों न हो ! पर अगर अब संसद की बहसों को सुनने तो एकाध नेताओं को भाषण को छोङकर अधिकाशं नेताओं के भाषण में जनता के हित की बात कम और व्यंगों और कटाक्षों की भरमार अधिक होती हैं । क्या इन नेताओं को जनता ने व्यंग और कटाक्ष करने के लिए संसद में चुनकर भेजा हैं या फिर उनके हित की बात करने के लिए । ऐसे में अब सोचना पङता हैं कि जब ये नेता संसद की गरिमा का ध्यान नहीं रख सकते हैं तो जनता और शब्दों की गरिमा का क्या खाक ध्यान रखेगें ? और ऐसे कुछ चुनिंदा नेता तो हर पार्टीं मे मौजूद हैं जो हर समय बिना विषय की गम्भीरता समझें अपनी बयानबाजी करने के लिए उतावले रहते हैं । ये नेता राजनीति के विषय पर तो कुछ भी बोल देते हैं साथ ही संवेदनशील एंव महिलाओ के प्रति टिप्पणी करने सें भी नहीं चुकते हैं । संसद में जदयू नेता शरद यादव दक्षिण भारतीय महिलाओं के रंग और शरीर पर टिप्पणी करते हैं तो मोहन भागवत भी बलात्कार के लिए पाश्चात्य सभ्यता को जिम्मेदार बताकर अप्रत्यक्ष रुप सें बलात्कारियों का साथ देते हैं और हद तो तब हो जाती हैं जब मुलायम सिंह अपने बयान में बलात्कार विरोधी कानून को ही गलत बताकर बलात्कारियों के प्रति अपने मुलायम ह्रदय का प्रर्दशन करते हैं । हरियाण जिसने कई महिला खिलाङी देश के दिए हैं वहाँ पर जब नेता बलात्कार के लिए फास्ट फूङ को जिम्मेदार बताते हैं तो फास्ट फूङ खाने वालों को भी एक बार सोचने पर मजबूर होना पङता हैं कि क्या ये नेता खुद कभी फास्ट फूङ नहीं खाते होगे क्या ? जो बलात्कार के कारण के लिए ऐसा बेतुका तर्क दे रहे हैं लेकिन जनता को सबसे ज्यादा बुरा तो तब लगता हैं जब महिला नेता खुद महिला होकर महिलाओं के सम्मान में गलत बयानबाजी करती हैं । दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री जब महिलाओं को ज्यादा एङवेंचर्स होने से मना करती हैं तो साक्षी महाराज उनसे भी एक कदम आगे बढकर हिंदुत्व की रक्षा के नाम पर महिलाओँ को कम से कम चार बच्चों को जन्म देनें की सलाह देती हैं। ऐसे में जब ये नेता महिलाओं के हित की बात करते हैं तो इनके मुख से ऐसी बाते अच्छी नहीं लगती हैं । और अजीब तो तब भी लगता हैं जब जनता के ये नेता संविधान की दुहाई देकर ऐसी बात बोल जाते हैं कि देश की जनता को सोचने पर मजबूर होना पङता हैं कि क्या उन्होनें ऐसे लोगों को चुनकर भेजा हैं । आखिर ये कैसे जनप्रतिनिधि हैं जो जनता के लिए चुने तो जाते हैं पर कुछ न कुछ ऐसा बोल ही देते हैं कि जनता की भावनाएं आहात होती हैं । पर इन सब के बीच एक सवाल तो इन नेताओं के पार्टियों के शीर्ष नेताओं से भी पूछा जाना चाहिए कि अगर शीर्ष नेता अपने पार्टी के इन नेताओं के बयानों से कोई इत्तिफाक नहीं रखते हैं तो इन नेताओं को बयानों की सार्वजनिक रुप से निंदा क्यों नहीं करते हैं , क्यों नहीं इन्हें पार्टी से निकाल देते हैं ? संविधन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देकर ये नेता आखित कब तक अपने बयानों से शान्ति के माहौल को अशान्ति में बदलने का प्रयास करते रहेगें । इन सबके बीच अजीब तो जब भी लगता हैं जब ये नेता कानून और संविधान की बात करके पर्दे के आगे जनता के हित की बात करते हैं और पर्दे के पीछे अपने हित की बात करते हैं । अगर हमारे नेता वाकई में जनता के और कानून के इतने ही सच्चे हितैषी होते तो बहुमत का अपमान कर जनता के वाटों का अपमान नही करते और दल – बदल विरोधी कानून का मजाक बनाकर कानून का मजाक बनाने की नहीं सोचते । जनता कों अपने बयानी बाण के प्रहार सें शर्मिन्दा करने वाले नेता अब उसके बहुमूल्य मत को शर्मिन्दा करने पर लगे हैं । कितना अजीब लगता हैं जब नेताओं को बहुमत नहीं मिलता हैं तो ये जनता के सामने अगले चुनाव में जाकर अपने काम न करने के पीछे के कारणों में बहुमत न होने का रोना रोने लगते हैं और अगर जनता इस उम्मीद से पूरे जोश के साथ जब मत देती हैं कि इस बार सरकार लाएंगे तो पूरे बहुमत की तब ये नेता उस बहुमत का अपमान करते हुए दल – बदल करने में व्यस्त हो जाते हैं और बहुमत प्राप्त दल बहुमत सें दूर हो जाता हैं । और फिर बहुमत प्राप्त और बहुमत से दूर दोनों दल अपना – अपना तर्क देकर एक बार फिर जनता की नजरों में खुद को निर्दोष और विपक्षी दल को दोषी साबित करने का प्रयास करने लगते हैं । ऐसे में जिस लोकतन्त्र की बुनियाद जनता के हित के साथ जुङी होती हैं जब वहाँ जनता कदम – कदम पर अपने आपको छला महसूस करने लगे तो ये कैसे मजबूत लोकतन्त्र कहलाएंगा ? लोकतन्त्र जो हमारे देश की पहचान हैं और जिसके बल पर भारत को एक नई पहचान और एक नई छवि मिली हैं आज उसी लोकतन्त्र की आङ में हम अपनी और लोकतन्त्र दोनों की पहचान को धूमिल करने का प्रयास कर रहे हैं । देश की जनता जैसे – जैसे अपने अधिकार के साथ अपने कर्त्तव्य को समझकर लोकतन्त्र को मजबूत बनाने में अपना योगदान दे रही हैं , वैसे – वैसे ही हमारे राजनैतिक दल अपने काम से इस लोकतन्त्र की गरिमा को गिराने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे में अब वक्त के साथ राजनैतिक दलों को भी सोचना चाहिए कि अगर लोकतन्त्र की गरिमा ही कम होती चली जाएगी तो उनकी गरिमा का तो कोई सवाल ही नही बच पाऐंगा और फिर क्या अस्त्तिव रह जायेगा उनका ? इसीलिए अब भी समय हैं राजनैतिक दलों को अगर अपनी गरिमा को बचाना हैं तो उन्हें सबसे पहले लोकतन्त्र की गरिमा को बचाना पङेगा ।

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