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यहाँ तो घर की मुर्गी दाल बराबर ही है !

हालात की चाल ।
हालात की चाल ।
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और कुछ इस तरह टीम इंडिया न्यूजीलैंड के साथ अपना चौथा वनडे मैच हार गयी । टीम इंडिया की इस हार के साथ ही शुरु हो गया दौर-ए-विश्लेषण का सफर , जहाँ हर क्रिकेट प्रेमी अपने आप मे सबसे बड़ा क्रिकेट स्क्सपर्ट बन कर अपने अनुसार हार के कारणों की समीक्षा करने मे लग जाता है पर इन सब शोर-शराबे से दूर कुछ दिन पहले इस हार के पहले वाली जीत से पहले भी एक बड़ी जीत हुई थी हालांकि वे इस केल की जीत नही थी पर थी वे भी एक जीत ही , वे थी कबड्डी वर्ल्ड कप मे भारत की जीत। पिछले शनिवार को कबड्डी वर्ल्ड कप का फाइनल था जिसमे भारत ने इराक को एक बड़े अन्तर से हराकर जीत हासिल की थी । शनिवार को जिस समय भारत ने कबड्डी का वर्ल्ड कप जीता था उस समय रात के लगभग नौ या सवा नौ का समय था । इस समय तक तो अधिकांश अखबारो के खेल के पेज का फॉर्मेट भी तैयार नही होता है लेकिन फिर भी इस बड़ी जीत की खबर को अखबारों ने कोने मे सिन्गल कॉलम की खबर बनाकर ही छोड़ दिया । नौ बजे तक अधिकांश अखबारों मे खेल का पूरा पेज भी तैयार नही होता है इसीलिए अखबारों का फॉर्मेट बदलकर नयी खबर को लगाने मे होने वाली मुश्किल का हवाला देना भी बड़ा बेतुका सा तर्क लगा । इसी खबर को न्यूज चैनल ने कुछ ऐसे अन्दाज मे दिखाया जैसे ये खेल और ये खिलाड़ी देश के लिए ज्यादा महत्त्व ही नही रखते है । कुछ चैनल ने नीचे चलने वाली खबरों की पट्टी मे इस खबर को ब्रेंकिग न्यूज के नाम से दिखाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ ली और खानापूर्ति के नाम पर खबर को ब्रेंकिग न्यूज तौर पर स्क्रीन पर सबसे नीचे का स्थान दे दिया और तो और कुछ चैनल ने तो इस खबर को दिखाना भी जरुरी नही समझा । ऐसे मे एकबार उन कबड्डी प्रेमी खिलाड़ियों के मन मे सवाल तो जरुर उठा ही होगा कि जहाँ हार के बाद पूरा का पूरा विश्लेषण का शो चल पड़ता है वहाँ जीत की खबर आखिर टॉर्च लेकर खोजने पर भी क्यों नही मिल पाती है ? एक तरफ तो समाज का बड़ा तबका विदेशी वस्तुओं (विशेषतौर पर चीन की साम्रगी ) का बहिष्कार कर स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करने और उनके प्रचार प्रसार पर जोर देने की बात करता है लेकिन दूसरी तरफ वही समाज विदेशी खेल क्रिकेट को सिर आँख पर बैठाए स्वदेशी खेल कबड्डी को ठेंगा दिखा देता है । पूरी दुनिया हमारे कबड्डी खिलाड़ियो का लोहा मान रही है , हमारे देश के खिलाड़ियों को अपने देश की टीम का कोच नियुक्त कर रही है और हम इन खिलाड़ियों और इस खेल से ऐसे अन्जान बैठे जैसे हमे यह पता ही न हो कि ये खेल होता क्या है और इसे खेलते कैसे है ? अब तो स्थिति ऐसी लगती है जैसा कबड्डी के साथ घर की मुर्गी दाल बराबर जैसा व्यवहार हो रहा है । वर्ल्ड कप , वर्ल्ड कप होता है चाहे वे किसी भी खेल का क्यों न हो पर अपने यहाँ तो वर्ल्ड कप मतलब क्रिकेट वर्ल्ड कप और कुछ नही । ये बात समझी जा सकती है कि व्यक्ति की खेल भावना मे एकाएक बड़ा बदलाव सम्भव नही है और न ही कोई क्रिकेट प्रेमी एकाएक कबड्डी प्रेमी बनकर उसकी बारिकियों का विश्लेषण कर सकता है और एकाएक इतने बड़े बदलाव की उम्मीद न तो समाज हमसे करता और न ही उस खेल के खिलाड़ी , वे तो बम इस इतनी उम्मीद करते है कि उन्हे और उनके खेल को भी समाज जाने-पहचाने और सम्मान दे । छोटी सी कोशिश करने से न तो हमारा क्रिकेट प्रेम हमसे दूर भागेगा और न ही क्रिकेट की प्रसद्दि कम होगी । अगर बदलाव आएगा तो सिर्फ इतना कि समाज मे कुछ लोग कबड्डी प्रेमी जरुर बन जाएंगे । और इस तरह भले समाज से भेद-भाव दूर हो या न हो पर खेलों से भेदभाव जरुर दूर हो जाएंगा । जो सम्मान कोहली और धोनी को मिलता है क्या उस सम्मान के हकदार अजय ठाकुर नही हैं ? अगर क्रिकेट मे कोई बुराई नही हैं तो कबड्डी और हॉकी मे भी ऐसी कोई बुराई नही है जिसके कारण समाज उनको नरजअन्दाज करें ।

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